शनिवार, 4 जून 2016

कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।

वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।
मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।

हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,
दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।

इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,
हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।

वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,
वीरान  हवेली  के ,  नजारों सा हो  गया।

जब रोटियों की तलब में मायूसियां मिलीं,
किरदार जमाने में  ,  गुनाहों सा हो  गया।

अब तो तुम्हारे महल में,  कुछ रोशनी सी है ,
कई   बेगुनाह   खून , चिरागों  का  हो  गया।

ईजाद क्या किया है, इबादत का ये  हुनर,
रब  मंदिरों की  चंद,  दिवारों  सा  हो गया।


                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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