किये ही दे रही है, मेरे घर को आग खा़क,
कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।
दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,
खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।
लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,
छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।
कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,
सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।
मजबूरियों की धूप में, मेरे पैर जल गये,
तुम मत बनाओ किस्सा, 'मोहन' की हार का।
अब क्या बताऐं सबको ,क्या बात हो गई?
है काम समझने का , खुद समझदार का।
....ये रचना आपको कैसी लगी? कृपया कमेंट करके अवश्य बतायें। आपकी प्रतिक्रिया हमारा मार्गदर्शन करेगी।
कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।
दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,
खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।
लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,
छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।
कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,
सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।
मजबूरियों की धूप में, मेरे पैर जल गये,
तुम मत बनाओ किस्सा, 'मोहन' की हार का।
अब क्या बताऐं सबको ,क्या बात हो गई?
है काम समझने का , खुद समझदार का।
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