मैंने खेतों में उम्मीदों को, पल जाते हुये देखा।
उन्हीं खेतों में उम्मीदों को, जल जाते हुये देखा।
वो ढलती शाम में खेतों की, मेंढों पर टहल करके,
किसी शायर को खेतों की, गजल गाते हुये देखा।
जमाने को नजर आया है, मंगल तक गया भारत,
जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।
थी रुसवा मुफलिसी मेरी, शरीफों के जमाने में,
वफा हमदर्द लोगों की , बदल जाते हुये देखा।
जो हरदम साथ रहते थे, वो आँसू बेवफा निकले,
रखे महफूज आँखों में, निकल जाते हुये देखा ।
हमारी कोशिशें थी कुछ, खुदा की मेहरबानी थी,
जो आतिस गीर था 'मोहन', सम्हल जाते हुये देखा।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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उन्हीं खेतों में उम्मीदों को, जल जाते हुये देखा।
वो ढलती शाम में खेतों की, मेंढों पर टहल करके,
किसी शायर को खेतों की, गजल गाते हुये देखा।
जमाने को नजर आया है, मंगल तक गया भारत,
जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।
थी रुसवा मुफलिसी मेरी, शरीफों के जमाने में,
वफा हमदर्द लोगों की , बदल जाते हुये देखा।
जो हरदम साथ रहते थे, वो आँसू बेवफा निकले,
रखे महफूज आँखों में, निकल जाते हुये देखा ।
हमारी कोशिशें थी कुछ, खुदा की मेहरबानी थी,
जो आतिस गीर था 'मोहन', सम्हल जाते हुये देखा।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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