सोमवार, 18 जुलाई 2016

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, (गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु अकीदत)



'गुरु अकीदत' का, मुझको रतन चाहिए।
हर घड़ी बस तुम्हारा, भजन चाहिए।
मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं,
मुझको केवल तुम्हारी , शरन चाहिए।

मेरे जीवन का तुम एक, एहसास हो।
सुख में धुँधले लगे, दुख में तुम साथ हो।
हमको मिलती रहे, बस तुम्हारी झलक,
मुझको ऐसा ही वातावरण चाहिए।

पंख भी गर हमारी उपजने लगें।
और माना कि हम खूब, उड़ने लगें।
मेरे उडने की सीमाएं महदूद हो,
उस जगह तक तुम्हारा, गगन चाहिए।

कैसे कह दें कि हमको, बचाते नहीं।
करते सब कुछ तुम्हीं ,पर जताते नहीं।
मेरा विश्वास हर भ्रम से ,मजबूत हो,
मुझको ऐसी दया की , किरन चाहिए।

गुरु अगर भ्रम में, 'मोहन' भटकने लगे।
राह चलते में गर कहिं, अटकने लगे।
भ्रम के पिंजड़े न फँस जाऊँ, सम्हारो गुरु,
ज्ञान सतगुरु ऐसा,  गहन चाहिए।

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, 
मुझको केवल तुम्हारी, शरन चाहिए।


                    ---- मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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मंगलवार, 28 जून 2016

किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।

दबे  दर्द  से  पर्दा , उठाना  नहीं  कभी।
जख्मों को इस तरह से, दुःखाना नहीं कभी।

कोई आँसू तेरे लिए , सजा न बन जाए ,
'मोहन' को इस तरह से,  सताना नहीं कभी।

ऐ खुदा मांगू दुआ, फरियाद करता हूँ,
मेरे जख्मों का बदला उनसे, चुकाना नहीं कभी।

साविके दस्तूर तुम , मय्यत पर मेरी आओगे,
निशां जुल्म-ए-सफ्फाक के, बताना नहीं कभी।

कब्रों में रहने वाले भी, सिसकेंगे रो पड़ेंगे,
 कब्रगाह में गज़ल मेरी, गाना नहीं कभी।

महल की दिवालियों में , शिरकत के वास्ते, 
किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।



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शनिवार, 4 जून 2016

कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।

वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।
मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।

हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,
दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।

इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,
हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।

वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,
वीरान  हवेली  के ,  नजारों सा हो  गया।

जब रोटियों की तलब में मायूसियां मिलीं,
किरदार जमाने में  ,  गुनाहों सा हो  गया।

अब तो तुम्हारे महल में,  कुछ रोशनी सी है ,
कई   बेगुनाह   खून , चिरागों  का  हो  गया।

ईजाद क्या किया है, इबादत का ये  हुनर,
रब  मंदिरों की  चंद,  दिवारों  सा  हो गया।


                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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सोमवार, 30 मई 2016

कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।

किये ही दे रही है, मेरे घर को आग खा़क,
कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।

दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,
खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।

लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,
छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।

कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,
सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।

मजबूरियों की धूप में, मेरे पैर जल गये,
तुम मत बनाओ किस्सा, 'मोहन' की हार का।

अब क्या बताऐं सबको ,क्या बात हो गई?
है काम समझने का ,  खुद समझदार का।




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शनिवार, 21 मई 2016

नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,

शिद्दत से उसको ढूँढा, भटका हूँ हर जगह पर, 
लेकिन न वो मिला,  मुझे जिसकी तलाश है।

चल-चल के रहगुजर में, जूते घिसे और पैर भी,
मंजिल के अब तलक हम, फिर भी न पास है।

नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,
बस शौक है ये उनका, उनका लिबास  है।

खालिक की जुफ्तजू में, अब तो कारवां भी खो गया,
इस सफर-ऐ-आखिरत में, अब काफी हताश है।

रस्म-ए-दिवालियों में, कैसे दिये  जलाऐं,
वो आये नहीं है अब तलक, आने की आस है।

महफिल में सबके साथ में, हँसना तो महज फर्ज है,
हकीकत हमारी दुनियाँँ, काफी  उदास है।


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शनिवार, 7 मई 2016

भारत विकास रथ की खातिर, शिक्षको सारथी बन जाओ,

अज्ञान अंधेरी  रातों सा, इल्मी कंदील जला डालो।
 दूर अशिक्षा  करने को ,अब ईंट से ईंट बजा डालो।

कथनी से करनी तक पहुँचो,भारत माँ के आँसू पौंछो,

कंधे से कंधा मिला रहे ,और दीप से दीप जला डालो।

भारत आगे बढ़ पायेगा, पहले तुमको बढना होगा,
जो किले बनाए भ्रष्टों ने, तुम उनकी नीव हिला डालो।

बिषबृक्ष पनपता भारत में, पश्चिम के बुरे रिवाजों का,
शिक्षा से जड़ें उखाड़ो तुम, और नाम-ओ-निशां मिटा डालो।

भारत विकास रथ की खातिर, शिक्षको सारथी बन जाओ,
ये शिशु भविष्य के भारत हैं, तुम इनको पार्थ बना डालो।

गंगा के पावन पानी की, तुम्हें कसम है आज जवानी की,
या तो तस्वीर बदल दो तुम, या अपना शीश कटा  डालो।


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गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,

दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।

कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं।

पास आती सब आवाजें, दूर ही जाती गई,
एक भी तिनका बचा होता, तो मैं झुकता नहीं।

हर सवेरा, शाम होकर, रात में दम तोड़ देता,
टूटती उम्मीद पर अंजाम ,कछ मिलता नहीं।

आँसू भरी हर आँख में,खुशियाँ दिखाना शौक है,
पर उजाले में मेरा आँसू, कभी दिखता नहीं।

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,
लिखना न होती बेबसी, तो अश्क भी लिखता नहीं।



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर (गज़ल)



माना कि तेरे शहर का,मौसम नया तो है।
मयस्सर हमारे गाँव में ,ताजा हवा जो है।

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर,
मुतमईन हूँ मैं गांव में, शर्म-ओ-हया तो है ।

हालांकि मेरी पहुँच से, वो दूर है  मगर ,
उस आसमां से कह दो, मेरा हौसला जो है।

वो चल चुके पटाखे, और बुझ चुके दिये ,
पाकर किसी गरीब का, बच्चा हँसा तो है।

अपने स्वार्थों के साँचों में,खुदाओं को ढालकर,
करता गुनाह आदमी , लाँछन खुदा  को है ।

इन्सानियत की मौत पर,कोई आँख तक न गीली हो,
'मोहन'नये जमाने  को, कुछ  हो  गया  तो  है ।

कभी शब्द रो दिए, तो कभी रो गईं मेरी आँखें,
ग़म और मेरे दरम्यां, कुछ सिलसिला तो है



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर (गजल)

किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।
शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।

ये है यकीं कि खाक से ,मोती  नहीं निकलते,
पर खाक भी न छानें, तो करें भी तो क्या करें।

हमको हुआ मयस्सर , जीवन कबाड़खाना,
मैदान में रहते है , तूफाँ से  क्या  डरें ।

महफूज कर लिया है, मैंने प्रत्येक पत्थर,
हर फूल के बदले में पाया है, क्या   करें  ।।

खुदगर्ज है जमाना, खुदगर्ज दोस्ताना ,
खुद्दार जिंदगी है , 'मोहन'  की  क्या करें। ।

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर
निशानों को कहने दो  , वे जो  कुछ वयाँ  करें।।




               .    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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रविवार, 10 अप्रैल 2016

जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

मैंने खेतों में उम्मीदों को, पल जाते हुये देखा।
उन्हीं खेतों में उम्मीदों को, जल जाते हुये देखा।

वो ढलती शाम में खेतों की, मेंढों पर टहल करके,
किसी शायर को खेतों की, गजल गाते हुये देखा।

जमाने को नजर आया है, मंगल तक गया भारत,
जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

थी रुसवा मुफलिसी मेरी, शरीफों के जमाने में,
वफा हमदर्द लोगों की , बदल जाते हुये देखा।

जो हरदम साथ रहते थे, वो आँसू बेवफा निकले,
रखे महफूज आँखों में, निकल जाते हुये देखा ।

हमारी कोशिशें थी कुछ, खुदा की मेहरबानी थी,
जो आतिस गीर था 'मोहन', सम्हल जाते हुये देखा।

                            

                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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बुधवार, 30 मार्च 2016

मेरी खुद जिंदगी, बेवफा हो गयी

जिंदगी से खुशी सब, दफा हो गयी।
मौत भी कम्बख्त अब, खफा हो गयी।

उन दिनों कुछ हवाऐं, चलीं इस तरह,
जिंदगी काफी हद तक, तवाह हो गयी।

हमने भूलों को रस्ते, दिखाऐ मगर,
राह मेरी ही मुझको ,दगा दे गयी।

लोग कहते है जिसको, मेरी जिंदगी,
मौत से भी  वह बदतर, सदा से रही।

हम अकीदत के जल को, चढायें कहाँ,
मेरी खुद जिंदगी, बेवफा हो गयी।



                       -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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सोमवार, 21 मार्च 2016

मिरे खेतों को पानी का ,भरोसा दे गया बादल,

वो नंगे पांव कांटों पर ,मेरा हँसकर गुजर जाना।
राह में ठोकरें खाकर के ,गिरना और सम्हल जाना।

मेरी आँखों से कागज पर,महज टपका था इक आँसू,
नहीं मालूम है मुझको, गज़ल गीतों का बन जाना।

हसीं सपने जो आँखों में ,वो तुमने ही दिखाये थे,
महज़ वोटों की खातिर था,तुम्हारा रंग बदल जाना।

किन्हीं मजबूर आँखों में ,उजाला भर सके तो सुन,
नहीं तुझको जरूरी अब,कहीं मंदिर तलक जाना।

मिरे खेतों को पानी का ,भरोसा दे गया बादल,
किसानों की यही किस्मत, वो बारिश का मुकर जाना।

यकीनन ये शरारत भी, तो पतझड़ की रही होगी,
मेरी उम्मीद की कलियों को, चुपके से कुतर जाना।

हमारी  आँख  में  आँसू , उदासी गर  नहीं  होते,
तो मुमकिन ही नहीं 'मोहन',गज़ल गीतों का ढल पाना।



                    -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शुक्रवार, 18 मार्च 2016

न आयेगी .....

एक दिन मैं बैठा आँगन में
दीवारों के उस पार 
क्षितिज को देख
कुछ विचार कर रहा था मन में
तभी अचानक एक चिड़िया आयी
फुदकती गाना गाती
कूड़े में से कुरेद कर कुछ खाती
फिर एक चिड़िया और आयी
एक और आयी
कुछ और आयीं
कुरेद कर कूड़ा वे खाने लगी
मुझे उनका आना अच्छा लगा
और उनपर दया भी आयी
मैंने मुट्ठी भर दाने बिखरा दिये आँगन में
सोचा कि अब जब भी कोई चिड़िया आयेगी
तो कूड़े के बजाय स्वच्छ दाने खायेगी
लेकिन मुझे क्या पता था दोस्तो
दाना डालने के बाद एक चिड़िया भी न आयेगी....


                             ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शुक्रवार, 11 मार्च 2016

चुन -चुन कर जिंदगी के , अरमान जला देता है। गज़ल

मुफलिस को जिंदगी में , जीना भी बता देता है।
गुमां ,गुरूर, अकड़ सब, पल भर में झुका देता है ।

हों मजबूरियां या चोचले, थोड़ा सा सब्र कर,
वक़्त वो मुर्शिद है जो , हर इल्म सिखा देता है।

उजाले की ज़रा कीमत तो, तुम उस शख्स से पूछो,
चुन -चुन कर जिंदगी के  , अरमान जला देता है।

भरी महफिल में करके इल्म , वो हँसने हँसाने का,
तिल तिल हुई उस मौत का, हर जख्म छिपा लेता है।

मानू  में कैसे स्वर्ग में,कोई भी गम नहीं,
बरसात का पानी मुझे, हर राज बता देता है।

मिला है ये सिला मुझको, मेरी सादा मिजाजी का,
हर शख्स मुझे जीने का, अंदाज बता देता है।
    

                             -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शुक्रवार, 4 मार्च 2016

शिक्षको चुनौती स्वीकारो, भारत का भाग्य बदल डालो,

अब उठो शिक्षको भोर हुई, कुरुक्षेत्र में जाना ही होगा ।
जो वचन दिया भारत माँ को ,करके दिखलाना ही होगा।

गांडीव उठा लो हाथों का, बध करो अँधेरी रातों का,
तुम 'ज्ञान बाण ' संधान करो, अज्ञान मिटाना ही होगा।

उस 'विश्व गुरु' भारत का फिर, दुनिया में परचम लहरा दो,
शिक्षको तरासो भारत को, यह देश बचाना ही होगा ।

संस्कृति डूबती जाती है ,उन पश्चिम के आगोशों में,
प्रण करो आज हुंकार भरो, अब चीर बढाना ही होगा ।

शिशु कर्णधार, इनको सम्हार, इस रचना का शिक्षक कुम्हार,
नव सृजन हो सके अब 'मोहन' , वह गीत सुनाना ही होगा ।

शिक्षको चुनौती स्वीकारो,  भारत का भाग्य बदल डालो,
घर घर में 'ज्ञान दिवाली' हो, हर दीप जलाना ही होगा ।

                   -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन' कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें।  आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

अन्दाज-ए-वफा सूरत से, हरगिज़ न लगाया जाये।





जिंदा लोगों को ,न फिर से, लाशों मे सुमारा जाये।
ऐ खुदा खैर करो ,  वो लम्हा  न  दुवारा आये।।

जलाए है आशियाने , दो पल के उजाले ने,
मेरे  अंधेरों में कोई दीपक, फिर से न जलाया जाये।

आँखें वयान करती है , दासता -ए-मुकद्दर,
आँसू पर किसी हँसी को, बाजिव न बताया जाये।

अब तो जिंदगी का मकसद, मतलब परस्तियां है
अन्दाज-ए-वफा सूरत से, हरगिज़ न लगाया जाये।

इन गीतों में सिर्फ मेरी ,हकीकत ही वयां होगी,
इल्जाम कोई फिर से, झूठा न लगाया जाये।

सफ्फाक सितमगरों को ,सर-ए-आम सजा देदो,
'मोहन' किसी को फिर से, सायर न बनाया जाये 
     

                              ----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।




जो इंसानियत को मारे, घर-घर लहू बहाये।

वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।।

ये आतिश नवा से लोग ही, मातम फ़रोश हैं,
चैन-ओ-अमन का ये वतन, फिर से न डगमगाये।

घोला ज़हर किसी ने या, गलती निज़ाम की,
गुनहगार इस वतन के, यूँ ही न पूजे जायें।

उन्हें खून की हर बूंद का, कैसे हिसाब दें,
जो आँसुऔ की कीमत, अबतक समझ न पाये।

मेरी ज़िन्दगी में इतनी, मश़रूफ़ियत भर दो,
कोई ग़म का व़ाक्या अब, हमको न याद आये।

                          -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

गहरे काले अक्षरों से


आओ चलकर देखते है,
क्या लिखा है 
हमारे भाग्य में
उन बड़े -बड़े कमरों में
अपने अनुक्रमांक पर
बैठकर
उन सफेद पीले पन्नों में
गहरे काले अक्षरों से
देखते है क्या लिखा है हमारे भाग्य में ..
                 
                     -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।


हर तावनाक चेहरा, कालिख छिपाये रखता है ।
अन्दर से और कुछ है, बाहर से और दिखता है ।

पसीने की तो दोस्तो, तुम बात छोड़ दीजिए,
खून भी इस शहर में, पानी के भाव बिकता है ।

ये झिलमिलाती बिजलियाँ, महदूद कोठियों तक,
इस जहां की शराफत का, सच सच वयान करता है ।

भूखौं के सामने अक्सर, रोटी की बात करते है,
एक एक वोट कितनी, मेहनत के बाद मिलता है ।

इतराते हुऐ हर फूल को, तुम गौर से देखो जरा,
किसी बीज की ही लास पर, फूल-ए-गुलाब खिलता है ।

एक आदमजात महफिल में, हँसता है बहुत जोर से,
चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।
              
                     ---- -मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये ।

वक्त का हर  ज़िक्र मैं, लिखता चला गया ।
हर रंज-ओ-ग़म  को आप ही, सहता चला गया ।।

इस रास्ते के दरम्यां, शायद कहीं पर छाँव हो,
'मोहन ' भरम की धूप में, जलता चला गया ।।

उन बस्तियों में आग सी, लगती चली गयी,
हवा में मेरा ज़िक्र कुछ, बहता चला गया ।।

सुकूं और मेरे दरम्यां, मुद्दत के फासले है,
थी साजिश-ए-किस्मत ,मैं  बिखरता चला गया ।।

इंसान को इंसान तो समझते थे लोग तब,
अफ़सोस है वह वक्त भी, गुजरता चला गया ।।

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये,
और दर्द शायरी में  , उतरता चला  गया ।।
                            
                    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

धुँधली होती तस्वीर

रेगिस्तान  के किसी कोने में 
बनाया हुआ है मैंने
अपना एक छोटा सा घर
जिसमें चारो ओर 
खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं।
उस घर में लगा  रखी है
एक तस्वीर
और एक गुलदस्ता
हवा के आवारा झोके 
उसमें होकर 
यूँ निकल जाते हैं
जैसे कि कुछ है ही नहीं
और छोड़ जाते है
साथ लायी हुई धूल की चादर
जो कि परत दर परत
छायी जा रही है
और धूसरित होता जा रहा है गुलदस्ता
धुँधली होती जा रही है वह तस्वीर ।

                    -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के ।

बस चल रही है जिंदगी, उस रब के नाम पर ।
उम्मीद है सुबह की,  भरोसा  है  शाम  पर ।।

घर की दर-ओ-दीवार पर, ये मेहरबां है आसमां,
कोई छत नहीं है दोस्तो ,  मेरे  मकान  पर ।।
 
मुतमईन हूँ मैं, दर्द की  दासतां  दबी  होगी,
देखो फूल भी ,मुरझा  गये है इस निशान पर ।।

वो बेमुराद माज़ी , जब जब भी याद आया,
तड़फा मैं बेतहाशा,  खुद के अंजाम पर  ।।

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के,
मेरी जल रही जमीं , है  धुआं  आसमान पर  ।।

कयामत के रोज वर्क से, कोई नहीं बचेगा,
कुछ हो चुके मुखातिब , कुछ है निशान पर ।।

                     ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले (गज़ल)


जख्मों को देखता हूं तो, इतिहास नजर आता है।
हर आस्तीन में छिपा , एक साँप नजर आता है।

महलों में रोशनी है, गलियों  में  बस अंधेरा,
इंसाफ इस जहां का, मुझे साफ नजर आता है।

ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले,
बस ढोंग नजर आता है, व्यभिचार नजर आता है।

जब भी हलाल होती है, दो बूंद शराफत,
मगर संदेह की ज़द में, ये सारा शहर आता है।

सारे सिकन्दरों को ,'मोहन' खबर ये कर दो,
आँधी  सा जो उठा है, तूफां सा गुजर जाता है।

मुसलसल कोशिशें करता रहा, मैं मुस्कुराने की मगर,
मेरी  जिंदगी का मकसद, हर बार बिखर  जाता है।


                                ----मनीष प्रताप सिंह  'मोहन '

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शनिवार, 30 जनवरी 2016

गज़ल , गीत, कविता कुछ भी समझें

मेरे दोस्त बिल्कुल भी, गद्दार नहीं है।
पर ये बात भी सही है, बफ़ादार नहीं है।।

हमको तो खुद ही चलना है, तारीक़ राह पर,
इन बस्तियों में मेरे, मददगार नहीं है।।

महफूज़ है पत्थर, सबूत मेरी सजा के,
हकीकत हम जिस सजा के, गुनहगार नहीं हैं।

फूँके कदम फिर भी गिरे , एहसास तब हुआ,
हम  दुनिया की दौड़  में अभी, होशियार नहीं हैं।

डाल दी  कस्ती मैंने ,उस  तेज धार में,
अफ़सोस  मेरे  हाथ में, पतबार नहीं है ।

कब तक मदद करेगा, भगवान भी हमारी,
क्या  उसका खुद का कोई , घरवार नहीं है ?

मैं तो गाये जा रहा था, हर दर्द ,दर -व-दर,
गनीमत रही खुदा कि  ये बाजार नहीं है ।


                          --------मनीष प्रताप सिंह 'मोहन '


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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

शायद मुझसे कुछ कहतीं है।

मुझे लगता है मैं पागल हूँ
शायद विक्षिप्त ,
या घायल हूँ ।
क्योंकि मैं बातें करता हूँ,
चट्टानों से,
पतझड़ से,
निर्जन से,
रेगिस्तानों से ।
मुझे लगता है,
कि विशाल पीपल की डालियां,
उसकी भूरी शाखाएं,
और उन पर बनी धारियां,
शायद मुझसे कुछ कहतीं है.........


बुधवार, 27 जनवरी 2016

पर दोस्ती जैसा कोई, रिश्ता नहीं होता

                दोस्ती

स्वर्ण के जैसा कभी, जस्ता नहीं होता ।

मौत के जैसा कोई , फरिश्ता  नहीं होता ।।
वैसे तो सारे विश्व में , रिश्ते हजार है,
पर दोस्ती जैसा कोई, रिश्ता नहीं होता ।।


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मंगलवार, 26 जनवरी 2016

मैं आग को पीता गया बस आजमाने के लिये

खुद की मौत पर तन्हा था मैं, मांतम मनाने के लिये।
केवल होंठ ही हिलते है, अब बस गुनगुनाने के लिये।।

हालांकि मेरे हाथ से, गिर कर जो टूटा काँच सा,
अरमान ही तो था मेरा, बस मुस्कुराने के लिये।।

उस शाम की महफिल में ,बस दो चार ही तो लोग थे,
मैं था ,  मेरे ग़म थे,   दो  आंसू  बहाने  के  लिये  ।।

वक़्त की रफ्तार में ,मैं भी मिटूंगा, जख़्म भी,
ये लफ़्ज ही रह जायेंगे, मरहम खपाने के लिये।।

मुझको अँधेरी राह में, दीपक दिखाना छोड़ दो,
ये तज़ुर्वा है मेरा, खुद से आँसू छिपाने के लिये ।।

मुझे राह का अन्दाज था, काँटे बहुत होंगे वहाँ,
मैं आग को पीता गया, बस आजमाने के लिये ।।



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सोमवार, 25 जनवरी 2016

सफल आदमी का हर बदनाम, बदल जाता है।

  गीत  या  गज़ल  या  कविता कुछ भी समझ लो

आदमी नहीं बदलता, बस लिबास बदल जाता है।

दोस्त नहीं बदलते, विश्वास बदल जाता है।।


अमीरी और गरीबी में , शुरू होता है फर्क वहीं से,

जब इन्सान का ,होश-ओ-हबास बदल जाता है।।


'मोहन' न मानो बात तो, तुम आजमा कर देख लो,

मुसीबत के कठिन दौर में ,हर खास बदल जाता है।।


ये खासियत है आज के ,जमाने के न्याय की ,

ग़र उनमें दम अधिक है, तो इंसाफ बदल जाता है

यद्यपि मैं चलता हूँ, अपने इन्हीं दो पैरों से,

पर रोशनी में चलने का, अन्दाज़ बदल जाता है ।।

बिकने बाली हर तश्वीर में, शक्ल तो वही है,

पर अमीरों के बास्ते, बस दाम बदल जाता है ।।

असफलता ही गुनाह है, इस आज के जमाने में,

सफल आदमी का हर , बदनाम बदल जाता है ।।

सुनाने को तो मैं भी ,सुना दूँगा हाथ फैलाकर,

पर धसकने लगती है धरती, आसमान बदल जाता है ।।


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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

वो गमज़दा एहसास ही अब, सायराना हो गया है।

देखते ही देखते ,मंजर पुराना हो गया है।
बंदिशों का इक तरीका , आशियाना हो गया है।

मसरूफ़ियत इतनी बढ़ी है, जिन्दगी के दरम्यां,

रूबरू खुद से हुए, मुझको जमाना हो गया है।


कोई गम छलक न जाये, मेरी सूरत मेरी जुबां से,

कम दोस्तों से इसलिए, मिलना मिलाना हो गया है।

हम उम्र भर का ये सफर, बेहोशियों में कर गये,

अब जिंदगी का फलस़फा ,केवल बहाना हो गया है।

गम और मेरी ज़िन्दगी, कुछ रूबरू है इस तरह,

गम बिना मुश्किल बहुत, गज़लें बनाना हो गया है।

वक़्त की हर पर्त में , मैं दर्द दफ़नाता रहा,

वो गमज़दा एहसास ही, अब सायराना हो गया है।

ज़िंदगी की दौड़ में , जब साँस लेता हूँ कभी,

फिर से माज़ी तीर का, 'मोहन' निशाना हो गया है